संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और वर्ल्ड ग्लेशिय...
Published on by Ashutosh Joshi, Founder at Water Parliament
2050 तक पानी की मांग और आपूर्ति का अंतर बहुत अधिक बढ़कर दोगुना हो सकता है। जलवायु परिवर्तन पर नजर रख रहे विशेषज्ञों का कहना है कि एक दो दशक पहले तक ऐसी धारणाओं और संदेहों के लिए जगह हो सकती थी लेकिन अब इनसे भी निपटने की तैयारी की जा रही है। ग्लेशियरों के निरंतर पिघलते जाने का असर सिर्फ अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं रहता क्योंकि सामाजिक अभियानों, नीतियों, और कार्यक्रमों का उसके साथ एक संबंध होता है।
धरती के तापमान में असाधारण रूप से बदलाव हो रहा है। इसको लेकर दुनियाभर के वैज्ञानिक चिंतित है। हिमालयी क्षेत्र जम्मू कश्मीर और लद्दाख के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। जम्मू कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र के 1200 से अधिक ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे हैं। साल 2000 से साल 2012 तक में 70 गीगाटन ग्लेशियर पिघल चुके हैं। इन ग्लेशियरों के पिघलने का असर पर्यावरण के अलावा अन्य चीजों पर पड़ा है।
साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में पहली बार जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के अलावा नियंत्रण रेखा (एलओसी) और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) क्षेत्र के समस्त ग्लेशियरों को शामिल किया गया है इनकी कुल संख्या 1200 से अधिक बताई गई है। पहली बार सैटेलाइट डाटा का उपयोग भी इन तमाम ग्लेशियरों की बनावट, मास और मोटाई में आए बदलावों को समझने के लिए किया गया है।
एशिया की प्रमुख नदियों को पानी से भरने वाले हिमालयी ग्लेशियर दुनिया में सबसे ज्यादा तेज गति से पिघल रहे हैं। लेकिन इस गति को लेकर अलग अलग अनुमान और धारणाएं रही हैं। ताजा अध्ययन में बड़े आंकड़ों और प्रामाणिक साक्ष्यों की मदद से हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की दर को महत्त्वपूर्ण बताया गया है। अध्ययन में यह पाया गया कि ग्लेशियर न सिर्फ अभूतपूर्व तेजी से पिघल रहे हैं बल्कि उस हिसाब से नया मास उस अनुपात में नहीं बन रहा है।
कश्मीर विश्वविद्यालय के भूगर्भविज्ञानी और ग्लेशियर विशेषज्ञ शोधकर्ताओं की टीम ने 2000-2012 की अवधि का पर्यवेक्षण काल (Supervision period)निर्धारित किया था जिस दौरान ग्लेशियरों में 35 सेंटीमीटर की सालाना गिरावट देखी गई। ग्लेशियरों की मोटाई में आए बदलावों का आकलन करने के लिए 2000 में नासा के सैटेलाइट पर्यवेक्षणों और 2012 में जर्मन स्पेस एजेंसी के डाटा को भी इस अध्ययन में शामिल किया गया।
वैज्ञानिकों के मुताबिक 2012 के बाद से ऐसा उपग्रही डाटा दुनिया में उपलब्ध नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि अभी तक फील्ड पर्यवेक्षणों (Supervision period) के जरिए छह या सात ग्लेशियरों के अध्ययन ही इस क्षेत्र में हुए थे, लिहाजा इस नए अध्ययन का महत्त्व बढ़ जाता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक ग्लेशियरों का पिघलाव तापमान में बढ़ोत्तरी और हिमपात में कमी के चलते होने लगता है।
पिछले साल जून में जारी द एनर्जी ऐंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट, टेरी की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि पश्चिमी हिमालय में कश्मीर का सबसे विशाल कोलाहोई ग्लेशियर के आकार में 1990-2018 के दरम्यान 18 प्रतिशत की कटौती आई है। इस ग्लेशियर के सिकुड़ते जाने की घटना का पहला ब्योरा 11 साल पहले कश्मीर यूनिवर्सिटी में कार्यरत ग्लेशियर विशेषज्ञ शकील अहमद रोमशू ने पेश किया था, जो इस नए अध्ययन से भी प्रमुखता से जुड़े हैं।
2009 में समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक तीन साल के अध्ययन से जुटाए आंकड़ों और साक्ष्यों के आधार पर तैयार उनकी रिपोर्ट में कहा गया था कि कश्मीर का सबसे बड़ा ग्लेशियर अन्य हिमालयी ग्लेशियरों की तुलना में अधिक तेजी के साथ पिघल रहा है। 11 वर्ग किलोमीटर से कुछ अधिक के फैलाव वाला यह विशाल ग्लेशियर हर साल 0.8 वर्ग किलोमीटर की दर से सिकुड़ रहा था।
https://m.jagran.com/lite/news/national-for-the-first-time-the-study-included-jammu-and-kashmir-and-ladakh-besides-the-lac-glaciers-the-report-is-shocking-jagran-special-20740164.html
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